मदर टेरेसा की जीवन परिचय | Mother Teresa biography in hindi, wikipedia and Essay

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कहा जाता है कि दुनिया में वे लोग जीते हैं जो अपने लिए ही नहीं, बल्कि दूसरों के लिए काम करते हैं, जो स्वार्थ को पीछे छोड़ देते हैं, वे ही वास्तविक बड़े व्यक्ति कहलाते हैं। इस तरह के लोगों का जीवन प्रेरणास्त्रोत होता है, और उन्हें मरने के बाद भी लोग उन्हें दिल से याद करते हैं। ऐसी ही एक महान व्यक्ति थी मदर टेरेसा। उनके दिल में दया, निःस्वार्थ भावना, और प्रेम की मूर्ति थी, और उन्होंने अपने पूरे जीवन को दूसरों की सेवा में व्यतीत किया।

मदर टेरेसा के अंदर अत्यधिक प्रेम था, जो केवल किसी विशेष व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि हर व्यक्ति के लिए था, विशेषकर वे जो गरीब, लाचार, बीमार, या अकेले थे। उनकी 18 साल की उम्र से ही नन बनने की तय कर ली थी, और उन्होंने उसके बाद अपने जीवन की दिशा को एक नई दिशा में मोड़ दिया।

मदर टेरेसा भारतीय नहीं थी, लेकिन जब वह पहली बार भारत आई, तो उन्होंने यहाँ के लोगों से प्रेम किया, और उन्होंने यही निर्णय लिया कि वह यहाँ अपना जीवन गुजारेंगी। उन्होंने भारत में अद्वितीय कार्य किया और अपने योगदान की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

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मदर टेरेसा की जीवन परिचय | Mother Teresa biography in hindi

मदर टेरेसा का जन्म और प्रारंभिक जीवन (Mother Teresa Birth and early life)

मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को हुआ था। उनका असली नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू (Agnes Gonxha Bojaxhiu) था। उनके पिता व्यवसायी थे और वे धार्मिक भी थे। वे हमेशा अपने घर के पास वाले चर्च जाते और यीशु के अनुयायी थे। 1919 में उनके पिता का निधन हो गया, जिसके बाद मदर टेरेसा को उनकी माँ ने बड़ा किया। पिता के जाने के बाद, मदर टेरेसा के परिवार को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। 

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लेकिन उनकी माँ ने उन्हें सिखाया कि किसी भी संघटना में खाना बाँटने की महत्वपूर्णता होती है। वो कहती थी कि हमें जो कुछ भी मिले, उसे सबके साथ बाँट कर खाना चाहिए। मदर टेरेसा का मन यह बात बहुत प्रभावित की, और उन्होंने इसे अपने जीवन में अमल में लाया। इसका परिणामस्वरूप वे आगे बढ़कर मदर टेरेसा बन गईं।

अगनेस ने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और उनकी आवाज़ भी बहुत सुरीली थी। वे चर्च में अपनी माँ और बहन के साथ यीशु की महिमा के गाने गाती थी। जब वे 12 साल की थी, तो वे अपने चर्च के साथ एक धार्मिक यात्रा पर गई, जिससे उनका मानसिकता में परिवर्तन आया और उन्होंने यीशु को अपना मुक्तिदाता मान लिया।

 1928 में जब उन्हें 18 साल हो गए, तो उन्होंने बप्तिस्मा लिया और यीशु को अपनाया। इसके बाद, वे डब्लिन गईं और वहाँ रहने लगीं। उसके बाद, उन्होंने कभी अपने घर नहीं जाने का निर्णय लिया और न ही अपनी माँ और बहन से मिल पाईं। उन्होंने नन बनने के बाद एक नए जीवन की शुरुआत की और उन्होंने अपनी ट्रेनिंग भी एक इंस्टीट्यूट से पूरी की। 

मदर टेरेसा का परिवार (Mother Teresa family)

माता का नाम (Mother Name)ड्रेनाफाइल बोजाक्सीहु
पिता का नाम (Father’s Name)निकोला बोजाक्सीहु
बहन का नाम (Sister’s Name)1 बहन (नाम ज्ञात नहीं)
भाई का नाम (Brother’s Name)1 भाई (नाम ज्ञात नहीं)

मदर टेरेसा के भारत आगमन और उनके द्वार किए गए कार्य (Mother Teresa’s arrival in India and the work done by her) 

1929 में मदर टेरेसा अपने इंस्टीट्यूट की बाकी ननों के साथ मिशनरी कार्य के लिए दार्जिलिंग शहर, भारत आई। यहाँ, उन्हें मिशनरी स्कूल में पढ़ाने का काम दिया गया था। मई 1931 में, उन्होंने नन बनने की प्रतिज्ञा ली। इसके बाद, उन्हें कोलकाता शहर, भारत भेजा गया, जहाँ उन्हें गरीब बंगाली लड़कियों को शिक्षा देने का काम सौंपा गया। 

उन्होंने संत मैरी स्कूल की स्थापना की, जिसे डबलिन की सिस्टर लोरेटो ने चलाया था, जहाँ गरीब बच्चे पढ़ाते थे। मदर टेरेसा को बंगाली और हिंदी दोनों भाषाओं का अच्छा ज्ञान था, और वे बच्चों को इतिहास और भूगोल की पढ़ाई कराती थी। कई सालों तक, उन्होंने इस काम को पूरी निष्ठा और लगन के साथ किया।

कोलकाता में रहते समय, उन्होंने वहाँ की गरीबी, बीमारियों की फैलाव, लाचारी, और अज्ञानता को करीब से देखा। ये सब बातें उनके दिल में घर कर गईं और उन्हें एक ऐसा काम करने की इच्छा हुई, जिससे वे लोगों की मदद कर सकें, उनके दर्द कम कर सकें। 1937 में, उन्हें मातृ की मान्यता से सम्मानित किया गया। 1944 में, वे संत मैरी स्कूल की प्रिंसिपल बन गईं। 

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मदर टेरेसा की जीवन में बदलाव (Changes in Mother Teresa’s life)

10 सितम्बर 1946 को, मदर टेरेसा की जीवन में एक नया चरण आया, जिससे उनका जीवन बदल गया। मदर टेरेसा के अनुसार – इस दिन वे कलकत्ता से दार्जिलिंग जा रही थीं, जब यीशु ने उनसे बात की और कहा कि उन्हें अध्यापन के काम को छोड़कर कलकत्ता के गरीब, लाचार, बीमार लोगों की सेवा करनी चाहिए। 

लेकिन जब मदर टेरेसा ने आज्ञाकारिता का व्रत लिया, तो उन्हें सरकारी अनुमति के बिना कान्वेंट नहीं छोड़ने दिया गया। जनवरी 1948 में, उन्हें अंत में परमिशन मिली, जिसके बाद उन्होंने स्कूल की नौकरी छोड़ दी। उसके बाद, मदर टेरेसा ने सफेद रंग की नीली धारी वाली साड़ी पहन ली, और उन्होंने विचार किया कि आने वाले जीवन में उन्हें क्या करना चाहिए।

उन्होंने बिहार के पटना से नर्सिंग की प्रशिक्षण प्राप्त की और फिर कलकत्ता आकर गरीब लोगों की सेवा में जुट गईं। मदर टेरेसा ने एक आश्रम बनाया जिसमें अनाथ बच्चे रह सकते थे, और उन्होंने और भी कई चर्चों को मदद करने के लिए अपने काम की शुरुआत की। उन्होंने यह सब काम निष्ठापूर्वक किया, लेकिन उन्हें कई समस्याओं का सामना भी करना पड़ा। 

काम छोड़ने के कारण उनके पास अपने जीवन को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त धन नहीं था, और उन्हें अपने रोजी-रोटी के लिए भी लोगों की मदद मांगनी पड़ती थी। लेकिन मदर टेरेसा ने इन सभी मुश्किलों का सामना किया और उन्हें अपने ईश्वर पर पूरा विश्वास था, उन्हें यकीन था कि वह उन्हें उनके काम की सफलता देंगे, जिसके लिए उन्होंने उन्हें बुलाया था। 

मदर टेरेसा के रूप में एक शिक्षक

1931 में, मदर टेरेसा ने अपने पहले ब्रह्मचर्य व्रत को धारण किया। उनकी संस्था ने उन्हें दार्जिलिंग भेजा, जहाँ उन्होंने एक कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाई की। उन्होंने अंकगणित, भूगोल, और धर्म की पढ़ाई की।

मदर टेरेसा को भारत आने के बाद कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उन्हें अंग्रेजी की ज्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए उन्होंने पहले अंग्रेजी और हिंदी भाषाएं सीखना शुरू की, ताकि वह अधिक से अधिक लोगों की मदद कर सकें। एक महीने के बाद, वे दार्जिलिंग से कोलकाता चली गईं और सेंट मैरी हाई स्कूल में पढ़ाना शुरू किया।

मदर टेरेसा बनी सिस्टर टेरेसा

टेरेसा ने खुद को गरीबों को जरूरतमंदों, शरणार्थियों, मलिन बस्तियों, विकलांगों और वंचित लोगों की मां कहा। उन्होंने न केवल एड्स रोगियों के लिए भोजन और आश्रय प्रदान किया बल्कि उन्होंने उन्हें सामाजिक स्वीकृति भी दी और अपनी करुणा से उन्हें ठीक किया।

वह उन सभी लोगों के साथ थी जिनका इस दुनिया में कोई नहीं था और जो समाज के लिए बोझ थे। सभी जरूरतमंदों को चंगा करके वह मदर टेरेसा की सिस्टर टेरेसा बनी। 

कोलकाता की प्रिय माँ टेरेसा

आपको जानकर खुशी होगी कि रोमन कैथोलिक चर्च ने कोलकाता की प्रिय माँ टेरेसा को उनके संत स्वरूप में भी सम्मानित किया है। उन्होंने कोलकाता शहर में कई दरिद्र, गरीब, और बेहाल लोगों की सेवा की है, और उनकी मदद के लिए उन्होंने प्राची प्रार्थना से खाने का ब्योरा भी किया है।

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इसके अलावा, उन्होंने नोबेल पुरस्कार के परिणामस्वरूप अनाथ बच्चों के लिए रहने और खाने के लिए कई आवास भी बनवाए हैं। मादर टेरेसा के द्वारा “शांति निवास” और “निर्मल बाल निवास” जैसे आवास स्थल स्थापित किए गए हैं। 

मदर टेरेसा की देखभाल से बच्चे दिखे स्वस्थ

मदर टेरेसा, जिन्हें आमतौर पर कलकत्ता की संत टेरेसा के नाम से जाना जाता है, ने अपने सेवा कार्यों के लिए कई महत्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त किए। उनके समाज में गरीबों, बीमारों और दीन-हार किए हुए लोगों की मदद के कामों में उन्हें यह कुछ प्रमुख पुरस्कार मिले:

1. 1979 में, मदर टेरेसा को नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त हुआ, जिसे उन्हें “पीड़ित मानवता की मदद करने में उनके काम के लिए” से सम्मानित किया गया। उन्होंने भारत में गरीब लोगों की सहायता के लिए प्राधिकृत धन दान किया।

2. 1980 में, मदर टेरेसा को भारत रत्न से सम्मानित किया गया, जो उनके मानवीय कार्यों के लिए भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।

3. 1997 में, उन्हें कांग्रेसनल गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया, जो यूनाइटेड स्टेट्स कांग्रेस का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है, और जिसमें उनके मानवीय कार्यों की प्रशंसा की गई।

4. 1983 में, मदर टेरेसा को ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया, जो वे व्यक्तियों पर दिया जाता है जिन्होंने यूनाइटेड किंगडम में कला, विज्ञान या सार्वजनिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

इन पुरस्कारों के साथ-साथ, मदर टेरेसा ने अपने जीवनकाल में दूसरों की मदद करने के निस्वार्थ कार्यों के लिए और भी कई पुरस्कार प्राप्त किए।

मिशनरी ऑफ चैरिटी का इतिहास (History of Missionaries of Charity)

7 अक्टूबर 1950 को, मदर टेरेसा के अत्यधिक प्रयासों के फलस्वरूप उन्हें मिशनरियों ऑफ़ चैरिटी बनाने की अनुमति मिली। इस संस्था में, जो सेवा के भाव से जुड़े थे, संत मैरी स्कूल के शिक्षक भी थे। आरंभ में, यह संस्था सिर्फ 12 वॉलंटियर से संचालित होती थी, और आजकल यहाँ 4000 से भी अधिक नन सेवा कर रही हैं। 

इस संस्था का मुख्य उद्देश्य उन लोगों की सहायता करना था, जिनके पास किसी प्रकार की सहायता नहीं थी। उस समय, कोलकाता में प्लेग और कुष्ठ जैसी बीमारियाँ बहुत प्रचलित थीं, और मदर टेरेसा और उनके संगठन ने ऐसे बीमारों की सेवा की, उनके घावों को साफ कर मरहम लगाया।

वो उस समय के कोलकाता में छूआ-छूत की समस्या को भी समझती थी, जिससे लाचार गरीबों को समाज से बाहर कर दिया जाता था। मदर टेरेसा उन सभी लोगों के लिए मसीहा बन गई थी। वह गरीबों, भूखों और नंगों की मदद करने में संलग्न रहती थीं, उन्हें खाना पिलाती थीं। 1965 में, मदर टेरेसा ने रोम के पोप जॉन पॉल 6 से अपनी मिशनरियों को दुनियाभर में फैलाने की अनुमति प्राप्त की। 

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भारत के बाहर, पहला मिशनरीज ऑफ चैरिटी का संस्थान वेनेज़ुएला में शुरू हुआ, और आजकल यह संस्था 100 से अधिक देशों में मौजूद है। मदर टेरेसा के काम सबके सामने थे, उनके दिल से किए गए सेवाभाव को स्वतंत्र भारत के सभी महान नेताओं ने मान्यता दी, और वे सभी उनकी प्रशंसा करते थे। 

मदर टेरेसा सम्मान और पुरस्कार (Mother Teresa Honors and Awards)

1962 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।

1980 में उन्हें भारत रत्न, देश के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया गया।

1985 में अमेरिका सरकार ने उन्हें मेडल ऑफ फ्रीडम से सम्मानित किया।

1979 में मदर टेरेसा को गरीब और बीमार लोगों की मदद के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

2003 में पॉप जॉन पौल ने उन्हें धन्य और ‘ब्लेस्ड टेरेसा ऑफ कलकत्ता’ कहकर सम्मानित किया।

मदर टेरेसा के कुछ विवाद (Some controversies of Mother Teresa)

विशाल प्रशंसा के बावजूद, मदर टेरेसा के जीवन और काम पर विवाद उठने लगे। कहा जाता है कि जहां सफलता होती है, वहां विवाद भी नजर आते हैं। मदर टेरेसा के दया और प्रेम से भरे निस्वार्थ भाव को भी लोगों ने गलत समझने की कोशिश की, और उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे भारत में लोगों का धर्म परिवर्तन करने का उद्देश्य रखकर सेवा कर रही हैं। लोग उन्हें केवल एक अच्छे इंसान नहीं मानते थे, बल्कि उन्हें एक ईसाई धर्म के प्रचारक के रूप में देखते थे। इन सभी विवादों के बावजूद, मदर टेरेसा ने अपने कामों पर ही ध्यान केंद्रित किया, वे लोगों की बातों में ध्यान नहीं दिया और अपने कार्यों को आगे बढ़ाने में विशेष ध्यान दिया।

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मदर टेरेसा की मृत्यु (death of mother teresa) 

मदर टेरेसा को बहुत सालों से दिल और किडनी की समस्याएं थी। उन्हें पहला दिल का दौरा 1983 में रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलते समय आया था, इसके बाद उन्हें 1989 में दूसरी बार दिल की समस्या आई। उनके स्वास्थ्य की बिगड़ती हालातों के बावजूद, वे अपने काम में लगी रहती थीं और मिशनरी के सभी कार्यों में जुटी रहती थीं। 1997 में जब उनकी हालत और बिगड़ी और उन्हें इसका अहसास हुआ, तो मार्च 1997 को उन्होंने मिशनरी ऑफ चैरिटी के मुख्य कार्यकर्ता पद को त्याग दिया, जिसके बाद सिस्टर मैरी निर्मला जोशी को इस पद के लिए चुना गया। 5 सितम्बर 1997 को मदर टेरेसा का कोलकाता में निधन हो गया।

मदर टेरेसा के अनमोल वचन (Mother Teresa’s precious words)

मदर टेरेसा 20वीं सदी की सबसे बड़ी मानवतावादियों में से एक मानी जाती है। उनके मुख से निकले कई अनमोल वचन आज भी हमारे दिलों में बसे हुए हैं। उन्होंने कहा कि वे नागरिक भारत की हैं, कैथोलिक नन तो बस उनके साधने के रूप हैं, लेकिन उनका पूरा दिल प्रभु येशु के पास है। उन्होंने अपने पूरे जीवन को प्रभु की सेवा में समर्पित किया था।

मदर टेरेसा के आश्रम में हजारों लोग आते थे, जो अलग-अलग तरह की मुश्किलों से जूझ रहे होते थे। वे सभी अपनी परेशानियों को मदर से साझा करते और उनसे प्रार्थना करवाते थे, जिससे सब ठीक हो जाता। मदर टेरेसा के प्रयासों ने कई चमत्कारिक बदलाव लाए, जिन्हें वे प्रभु येशु के नाम से किया।

आजकल भी हमारे समाज में मदर टेरेसा जैसी मानवतावादी आत्मा की आवश्यकता है। उन्होंने सिखाया कि हमें दूसरों के साथ प्यार और सहानुभूति बरतनी चाहिए, और उनके दुःख-दर्द को समझने की कोशिश करनी चाहिए। मदर टेरेसा दया और प्रेम की जीती जागती मिसाल थी, और उनके जीवन से हम बहुत कुछ सिख सकते हैं। वे एक आदर्श हैं जिनकी तरह हम भी बनना चाहते हैं।

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